सदियों से अजमेर में राजपूतों और मुसलमानों के बीच संघर्ष चलता रहा। अजमेर का नाम, गढ़ और स्थल जैसे अनासागर झील, चौहान राजपूतों की विरासत है। इस्लामी प्रभाव दिल्ली सुल्तानों और चिश्ती दरगाह के साथ आया था, जबकि राजपूतों के लिए पवित्र हिंदू शहर पुष्कर अजमेर के साथ था। इस लिए रणथम्भोर के चौहान, मेवाड़ के सिसोदिया और मारवाड़ के राठौड़ों ने बार-बार अजमेर को इस्लामी कब्जे से मुक्त किया।
इसके छोटे आकार के बावजूद, मुगलों ने अजमेर को बंगाल और गुजरात की तर्ज पर एक पूर्ण राज्य बनाया। सुबहदार का काम राजपूत सेनाओं की हरकतों पर निगरानी रखना, राजपूत राज्यों के बीच किसी भी संघ को रोकना, और दरगाह की रक्षा करना था। अजमेर के मुगल़ों को किसी भी राजपूत राज्य का सामना करने के लिए संसाधन नहीं था, यह काम दिल्ली और आगरा से आने वाली सेनाओं का था।
अजमेर राजस्थान के भौगोलिक केंद्र में है और राजपूत साम्राज्यों के खिलाफ हर युद्ध का प्रारंभिक बिंदु था। हल्दीघाटी अभियान की विफलता के बाद महाराणा प्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए, अकबर अजमेर में स्थानांतरित हो गया। अमर सिंह के खिलाफ युद्ध के लिए, जहांगीर लगभग तीन साल के लिए अजमेर में रहा। जब राज सिंह ने चित्तौड़ को दृढ़ किया तो शाहजहां अजमेर चला आया। मेवाड और मारवाड़ के खिलाफ राजपूत युद्ध-I के लिए, औरंगजेब अजमेर में दो साल तक था। सम्राट की उपस्थिति से उच्च अधिकारि, सेना-नायक और उनकी विशाल सेनाओं के पूरे वजन का असर होता था।
राजपूत युद्ध का भाग 1 अजीत सिंह और दुर्गादास राठौड़ द्वारा 1708 में जोधपुर की मुक्ति के साथ समाप्त हो गया था। लेकिन भाग द्वितीय लगभग तुरंत शुरू हुआ जब बहादुर शाह के तहत मुगलों ने सवाई जय सिंह का राज्य छीना। वे उनके भाई बिजय सिंह को देने का इरादा रखते थे, लेकिन आमेर तक पहुंचने पर मुगल को पता चला कि लोग जय सिंह के प्रति वफादार थे, इसलिए आमेर पर कब्जा कर लिया गया। उसका नाम बदलकर मोमीनाबाद कर दिया गया, एक मस्जिद बनी और सय्यद हुसैन खान बरहा को प्रभारी (जनवरी 1708) रखा गया।
जब यह सेना दक्षिण में चली गई थी, जय सिंह और अजीत सिंह ने मेवाड़ के अमर सिंह के साथ गठबंधन किया। उनकी संयुक्त सेना ने जोधपुर और मेड़ता को मुक्त कर दिया और आमेर तक चढ़ाई की।
उन्होंने 1708 सांभर की लड़ाई में मुगल सेना को हराया और सैयद हुसैन खान की हत्या कर दी। दो राजपूत प्रमुखों ने प्राचीन सांभर जिले को अपने बीच विभाजित कर दिया। 1709 में जय सिंह ने आमेर को मुक्त कर दिया, वहीँ अजीत सिंह ने अजमेर पर हमला किया और मुगल सुबहदर से 45,000 रुपये, एक हाथी और दो घोड़े जीत लिए।
अनिवार्य मुगल जबाव का सामना करने के लिए अजीत सिंह और जय सिंह ने क्षेत्र के छोटे राज्यों और ठिकानो के साथ एक बड़ा गठबंधन बना लिया। करौली के जादौन राजपूतों को हिंडौन पर कब्जा करने और रणथम्भोर के सैयद हिदायतुल्ला पर हमला करने में मदद मिली। अजित सिंह ने अहमदाबाद के चारों ओर लूट मचाने के लिए गुजरात के कोलियों को प्रोत्साहित किया और जय सिंह ने पुर-मंडल के मुगल फौजदार को पीछे हटने व अजमेर में शरण लेने के लिए मजबूर किया। अलग-अलग मोर्चे खुलते देख, मुगलों ने आखिरकार शांति के लिए 1710 में संधि की। बहादुर शाह फिर अजमेर दरगाह पर सम्मान देने गए, जबकि दो विजयी राजाओं ने पुष्कर में पवित्र स्नान किया और धार्मिक समारोहों में भाग लिया।
बहादुर शाह अजमेर जाने वाले आखिरी मुगल शासक थे। राजपूतों के साथ शांति संधि की सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि उनकी सेनाओं को पंजाब में जा बंदा के तहत सिख उपद्रव को नियंत्रित करना चाहिए। उन्होंने इस संधि की शर्तों का पालन करने से इनकार कर दिया और अपनी राजधानियों की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए प्राथमिकता दी। इसलिए मुगलों ने शांति संधि तोड़ 1711 में सांभर पर हमला किया, पण अजित सिंह ने एक बार फिर उन्हें पराजित किया।
जून 1711 में मूर्ख मुगलों ने मेवाड़ के एक सीमावर्ती गांव को लूट लिया, जिससे अजमेर के लिए एक नया खतरा सामने आया। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के 20,000 घुड़सवार पुर-मंडल की ओर धरती हिलाते आ धमके। मुग़ल भाग गए और अजमेर के पास बांदनवाड़ा में युद्ध हुआ जिसमें राँबाज़ खान, शेरुल्ला खान और 2000 मुग़ल मेवाड़ के राजपूतों द्वारा मारे गए।
अजीत और जय ने फारुखसियार के खिलाफ अपने गठबंधन को जारी रखा, बादशाह ने जज़िया को खत्म करके उन्हें शांत करने का प्रयास किया। अजमेर को राजपूत आक्रमणों से बचाने के लिए उन्होंने जय सिंह को मालवा और अजीत सिंह को मुल्तान दिया। जय सिंह ने 1713 से एक नयी और अधिक सुरक्षित राजधानी बनाने की योजना शुरू करी और मुगलों से युद्ध करना ठीक नहीं समझा जब तक इस नगर जयपुर में गढ़ और तोपें न थीं। राठौड़ राजा अजमेर पर आक्रमण बंद करने के लिए गुजरात का धनी प्रांत चाहता था, मुग़ल अभी गुजरात से हाथ नहीं धोना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध जारी रखा। 1713 में अजित सिंह ने अजमेर में गांवों को कब्जा कर लिया जो अजमेर दरगाह के लिए भोजन की आपूर्ति की, और इसके परिणामस्वरूप रमजान के दौरान दरगाह का लंगर खाना बंद रहा, जिससे भारत के मुस्लिमों को अजीत सिंह का नाम हमेशा के लिए याद हो गया।
1714 में मुगलों ने मारवाड़ पर हमला किया और अजीत को शांति बनाने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन बदले में उन्हें आखिरकार गुजरात सौंपा। अजीत सिंह ने गुजरात जाने के बजाय, भिनमाल और जालोर पर कब्जा कर लिया। 1718 में अजमेर के नाजीम खान-ए-जहांन बहादुर ने चुरामान जाट और उनके भतीजे रूपा को दिल्ली लाया। इसका फायदा उठाते हुए, अजित सिंह ने फिर 1721 में अजमेर पर हमला किया और गौहत्या और मस्जिदों से अज़ान पर प्रतिबन्ध लगाया। नए सम्राट मुहम्मद शाह ने उस पर हमला करने के लिए एक सेना भेजी, लेकिन अभय सिंह के राजपूत दल ने अजमेर से दूर रास्ते से दिल्ली से 16 मील की दूरी पर मुगल क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। अंततः आक्रमणकारियों ने राजा अजीत सिंह के साथ शांति वार्ता कर ली।
अजमेर को अजीत सिंह के अधीन छोड़ दिया गया, जबकि गुजरात को बाद में उन्हें देने का वादा किया गया। परन्तु युद्ध और इस्लामी प्रभाव की अंतिम साँसे चल रहीं थी। राठौर राजा ने सांभर को पकड़ने भेजे गए मुग़ल फौजदार को हराया। उनके पुत्र अभय सिंह ने गुजरात में मुगलों को खूब लूटा और जोधपुर के मेहरानगढ़ में यह तोपें, सोना, और अन्य सामान को सजाया। दृढ़ निश्चय बख्त सिंह राठौर ने 1752 में अपनी मृत्यु तक अजमेर पर राज किया।
जयपुर का निर्माण 1727 में पूरा हुआ और उसके बाद से सवाई जय सिंह ने सैन्य योजनाएं आरम्भ कीं जो 1741 में गंगवाना के युद्ध तक चलीं। जयपुर ने मुगलों से रणथंभौर और नारनोल जीत लिए। राजपूत राज्यों में से कोई भी ईरान के नादिर शाह के खिलाफ मुगलों को बचाने नही आया। नादिर अजमेर की यात्रा करने और राजपूत राज्यों पर हमला करने की योजना बना रहा था, लेकिन आखिरकार उनको भड़काऊ पत्र भेजने के बाद भारत से चलता बना।
इस प्रकार, अजमेर और इसकी पवित्र दरगाह को राजपूत हमलों से बचाने के लिए मुगलों ने गुजरात और मालवा खो दिए। किन्तु अजमेर से इस्लामी प्रभाव का अंतिम रूप से विलुप्त होना तय था और इसका कारण था जयपुर और जोधपुर की बढ़ती शक्ति।
दरगाह के आसपास छोड़कर, इस शहर में कभी भी इस्लामी संस्कृति का विकास नहीं हो पाया। गुजरात जैसे अन्य प्रांतों में, मुगल अफसर सूरत या जूनागढ़ में नवाब बन गए थे, लेकिन अजमेर में यह भी संभव नहीं था क्योंकि राजपूत ठिकाने अजमेर के चारों ओर जमे हुए थे। अजमेर में 66 ठिकानो में से, अधिकतर राठौड़ ठाकुरों के। प्रत्येक के पास उनके छोटे गढ़ और सेनाएं थीं, जिन को लड़े बिना उखाड़ना असंभव था, जबकि बड़े राजपूत राज्यों के हमलों से अजमेर में मुगलों की सेन्य शक्ति विलुप्त हो चुकी थी।
अजमेर के सामरिक महत्व
इसके छोटे आकार के बावजूद, मुगलों ने अजमेर को बंगाल और गुजरात की तर्ज पर एक पूर्ण राज्य बनाया। सुबहदार का काम राजपूत सेनाओं की हरकतों पर निगरानी रखना, राजपूत राज्यों के बीच किसी भी संघ को रोकना, और दरगाह की रक्षा करना था। अजमेर के मुगल़ों को किसी भी राजपूत राज्य का सामना करने के लिए संसाधन नहीं था, यह काम दिल्ली और आगरा से आने वाली सेनाओं का था।
अजमेर राजस्थान के भौगोलिक केंद्र में है और राजपूत साम्राज्यों के खिलाफ हर युद्ध का प्रारंभिक बिंदु था। हल्दीघाटी अभियान की विफलता के बाद महाराणा प्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए, अकबर अजमेर में स्थानांतरित हो गया। अमर सिंह के खिलाफ युद्ध के लिए, जहांगीर लगभग तीन साल के लिए अजमेर में रहा। जब राज सिंह ने चित्तौड़ को दृढ़ किया तो शाहजहां अजमेर चला आया। मेवाड और मारवाड़ के खिलाफ राजपूत युद्ध-I के लिए, औरंगजेब अजमेर में दो साल तक था। सम्राट की उपस्थिति से उच्च अधिकारि, सेना-नायक और उनकी विशाल सेनाओं के पूरे वजन का असर होता था।
राजपूत युद्ध- II
राजपूत युद्ध का भाग 1 अजीत सिंह और दुर्गादास राठौड़ द्वारा 1708 में जोधपुर की मुक्ति के साथ समाप्त हो गया था। लेकिन भाग द्वितीय लगभग तुरंत शुरू हुआ जब बहादुर शाह के तहत मुगलों ने सवाई जय सिंह का राज्य छीना। वे उनके भाई बिजय सिंह को देने का इरादा रखते थे, लेकिन आमेर तक पहुंचने पर मुगल को पता चला कि लोग जय सिंह के प्रति वफादार थे, इसलिए आमेर पर कब्जा कर लिया गया। उसका नाम बदलकर मोमीनाबाद कर दिया गया, एक मस्जिद बनी और सय्यद हुसैन खान बरहा को प्रभारी (जनवरी 1708) रखा गया।
जब यह सेना दक्षिण में चली गई थी, जय सिंह और अजीत सिंह ने मेवाड़ के अमर सिंह के साथ गठबंधन किया। उनकी संयुक्त सेना ने जोधपुर और मेड़ता को मुक्त कर दिया और आमेर तक चढ़ाई की।
उन्होंने 1708 सांभर की लड़ाई में मुगल सेना को हराया और सैयद हुसैन खान की हत्या कर दी। दो राजपूत प्रमुखों ने प्राचीन सांभर जिले को अपने बीच विभाजित कर दिया। 1709 में जय सिंह ने आमेर को मुक्त कर दिया, वहीँ अजीत सिंह ने अजमेर पर हमला किया और मुगल सुबहदर से 45,000 रुपये, एक हाथी और दो घोड़े जीत लिए।
अनिवार्य मुगल जबाव का सामना करने के लिए अजीत सिंह और जय सिंह ने क्षेत्र के छोटे राज्यों और ठिकानो के साथ एक बड़ा गठबंधन बना लिया। करौली के जादौन राजपूतों को हिंडौन पर कब्जा करने और रणथम्भोर के सैयद हिदायतुल्ला पर हमला करने में मदद मिली। अजित सिंह ने अहमदाबाद के चारों ओर लूट मचाने के लिए गुजरात के कोलियों को प्रोत्साहित किया और जय सिंह ने पुर-मंडल के मुगल फौजदार को पीछे हटने व अजमेर में शरण लेने के लिए मजबूर किया। अलग-अलग मोर्चे खुलते देख, मुगलों ने आखिरकार शांति के लिए 1710 में संधि की। बहादुर शाह फिर अजमेर दरगाह पर सम्मान देने गए, जबकि दो विजयी राजाओं ने पुष्कर में पवित्र स्नान किया और धार्मिक समारोहों में भाग लिया।
बहादुर शाह अजमेर जाने वाले आखिरी मुगल शासक थे। राजपूतों के साथ शांति संधि की सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि उनकी सेनाओं को पंजाब में जा बंदा के तहत सिख उपद्रव को नियंत्रित करना चाहिए। उन्होंने इस संधि की शर्तों का पालन करने से इनकार कर दिया और अपनी राजधानियों की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए प्राथमिकता दी। इसलिए मुगलों ने शांति संधि तोड़ 1711 में सांभर पर हमला किया, पण अजित सिंह ने एक बार फिर उन्हें पराजित किया।
जून 1711 में मूर्ख मुगलों ने मेवाड़ के एक सीमावर्ती गांव को लूट लिया, जिससे अजमेर के लिए एक नया खतरा सामने आया। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के 20,000 घुड़सवार पुर-मंडल की ओर धरती हिलाते आ धमके। मुग़ल भाग गए और अजमेर के पास बांदनवाड़ा में युद्ध हुआ जिसमें राँबाज़ खान, शेरुल्ला खान और 2000 मुग़ल मेवाड़ के राजपूतों द्वारा मारे गए।
राठोड़ों के दबाव ने अजमेर से इस्लामी प्रभाव विलुप्त किया
अजीत और जय ने फारुखसियार के खिलाफ अपने गठबंधन को जारी रखा, बादशाह ने जज़िया को खत्म करके उन्हें शांत करने का प्रयास किया। अजमेर को राजपूत आक्रमणों से बचाने के लिए उन्होंने जय सिंह को मालवा और अजीत सिंह को मुल्तान दिया। जय सिंह ने 1713 से एक नयी और अधिक सुरक्षित राजधानी बनाने की योजना शुरू करी और मुगलों से युद्ध करना ठीक नहीं समझा जब तक इस नगर जयपुर में गढ़ और तोपें न थीं। राठौड़ राजा अजमेर पर आक्रमण बंद करने के लिए गुजरात का धनी प्रांत चाहता था, मुग़ल अभी गुजरात से हाथ नहीं धोना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध जारी रखा। 1713 में अजित सिंह ने अजमेर में गांवों को कब्जा कर लिया जो अजमेर दरगाह के लिए भोजन की आपूर्ति की, और इसके परिणामस्वरूप रमजान के दौरान दरगाह का लंगर खाना बंद रहा, जिससे भारत के मुस्लिमों को अजीत सिंह का नाम हमेशा के लिए याद हो गया।
1714 में मुगलों ने मारवाड़ पर हमला किया और अजीत को शांति बनाने के लिए मजबूर कर दिया, लेकिन बदले में उन्हें आखिरकार गुजरात सौंपा। अजीत सिंह ने गुजरात जाने के बजाय, भिनमाल और जालोर पर कब्जा कर लिया। 1718 में अजमेर के नाजीम खान-ए-जहांन बहादुर ने चुरामान जाट और उनके भतीजे रूपा को दिल्ली लाया। इसका फायदा उठाते हुए, अजित सिंह ने फिर 1721 में अजमेर पर हमला किया और गौहत्या और मस्जिदों से अज़ान पर प्रतिबन्ध लगाया। नए सम्राट मुहम्मद शाह ने उस पर हमला करने के लिए एक सेना भेजी, लेकिन अभय सिंह के राजपूत दल ने अजमेर से दूर रास्ते से दिल्ली से 16 मील की दूरी पर मुगल क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। अंततः आक्रमणकारियों ने राजा अजीत सिंह के साथ शांति वार्ता कर ली।
अजमेर को अजीत सिंह के अधीन छोड़ दिया गया, जबकि गुजरात को बाद में उन्हें देने का वादा किया गया। परन्तु युद्ध और इस्लामी प्रभाव की अंतिम साँसे चल रहीं थी। राठौर राजा ने सांभर को पकड़ने भेजे गए मुग़ल फौजदार को हराया। उनके पुत्र अभय सिंह ने गुजरात में मुगलों को खूब लूटा और जोधपुर के मेहरानगढ़ में यह तोपें, सोना, और अन्य सामान को सजाया। दृढ़ निश्चय बख्त सिंह राठौर ने 1752 में अपनी मृत्यु तक अजमेर पर राज किया।
जयपुर का निर्माण 1727 में पूरा हुआ और उसके बाद से सवाई जय सिंह ने सैन्य योजनाएं आरम्भ कीं जो 1741 में गंगवाना के युद्ध तक चलीं। जयपुर ने मुगलों से रणथंभौर और नारनोल जीत लिए। राजपूत राज्यों में से कोई भी ईरान के नादिर शाह के खिलाफ मुगलों को बचाने नही आया। नादिर अजमेर की यात्रा करने और राजपूत राज्यों पर हमला करने की योजना बना रहा था, लेकिन आखिरकार उनको भड़काऊ पत्र भेजने के बाद भारत से चलता बना।
इस प्रकार, अजमेर और इसकी पवित्र दरगाह को राजपूत हमलों से बचाने के लिए मुगलों ने गुजरात और मालवा खो दिए। किन्तु अजमेर से इस्लामी प्रभाव का अंतिम रूप से विलुप्त होना तय था और इसका कारण था जयपुर और जोधपुर की बढ़ती शक्ति।
दरगाह के आसपास छोड़कर, इस शहर में कभी भी इस्लामी संस्कृति का विकास नहीं हो पाया। गुजरात जैसे अन्य प्रांतों में, मुगल अफसर सूरत या जूनागढ़ में नवाब बन गए थे, लेकिन अजमेर में यह भी संभव नहीं था क्योंकि राजपूत ठिकाने अजमेर के चारों ओर जमे हुए थे। अजमेर में 66 ठिकानो में से, अधिकतर राठौड़ ठाकुरों के। प्रत्येक के पास उनके छोटे गढ़ और सेनाएं थीं, जिन को लड़े बिना उखाड़ना असंभव था, जबकि बड़े राजपूत राज्यों के हमलों से अजमेर में मुगलों की सेन्य शक्ति विलुप्त हो चुकी थी।